मुर्दे को कफ़न देने से बेहतर जिंदे को कपड़ा देना है।
जिस दौड़ में हम जी रहे है ये वाकई तरक्की का दौड़ है। जहां लोग अपनी कारोबार इनकॉम सोर्स बढ़ाने पे लगे है वहीं शहर के नुक्कड़ पे कुछ गरीब बच्चे अपनी जिंदगी की डोर को बचाने के लिए डस्टबीन के इर्द गिर्द गिरे पन्नी से रोटी के कुछ टुकड़े निकाल कर अपने नन्हे हाथों में सजो रहे है ताकि जिंदगी कि डोर टूटने से बच सके। हम आलीशान बंगला में सहूलियत ढूंढ रहे है। वही वो बच्चे जिनके सर पे मां बाद का साया नहीं वो रात होते ही आसमान के साए में बस ये दुआ किए जा रहे है की जल्द नींद अजाए।
हमारी कैसी तरक्की है की जिससे हमे खुशी नहीं मिलती, हमे तरक्की के बावजूद पदिशानिया झेलनी पड़ती है। हम किस तरक्की के पीछे भाग रहे है जहां नन्हे बालक खाने को तरस रहे है, उनके बदन पे कपड़ो के नाम पर बस पेपर लिपट रहे है, जिनके जिस्म ने इस नन्ही सी उम्र कई बड़ी मुसीबतों का सामना किया है, क्या उनका हक नही है हमारी तरक्की में शामिल होने का।
और जब बैठते है एक जगह तो बात होती है इनकी मौत पे हम कफन देंगे , कोई बोलता है हम किर्या क्रम करेंगे , कोई बड़े तरक्की वाले आते है वो अपने सीने पे अपनी हथेली से ठोक कर कहते है हम भंडारा करेंगे।
अरे! आदरणीय भाई साहब इन्हे कफन, किर्या, और भंडारे की जरूरत नहीं है। इन्हे तो बस कफन की जगह कपड़ा , किर्या की जगह पढ़ाई और भंडारे की जगह इनके रहने का कोई बंदोबस्त कर दो बस यही चाहिए इन्हे। इन्हे अपनी कफन, किर्या, और भंडारे से कोई मतलब नहीं ये जिंदा है। इन्हे कपड़ा, शिक्षा, मक्का, नोकरी बस यही चाहिए।
मरने के बाद कफ़न दोगे उससे अच्छा है अभी इन्हे कपड़ा दे दें।
मार्कने बाद इनका किर्या कर्म करोगे उससे अच्छा है अभी इन्हे शिक्षा देदो।
मरने के बाद इनके लिए भंडारा करोगे उससे अच्छा इन्हे एक मकान और खाना देदो।
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